प्रतिभू के दायित्व की प्रकृति तथा सीमा
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प्रतिभू के दायित्व की प्रकृति तथा सीमा को निम्न बिन्दुओं के द्वारा समझा जा सकता है-
(1) प्रतिभू का दायित्व सह-विस्तारी होता है- अनुबन्ध
अधिनियम की धारा 128 बताती है कि जब तक कि कोई विपरीत अनुबन्ध नहीं हो, तब तक प्रतिभू का दायित्व मूल ऋणी के साथ सह विस्तारी होता है। इसका अर्थ है कि प्रतिभू उस सीमा तक हो दायित्वाधीन होगा जिस तक मूल ऋणी ऋणदाता के प्रति है। जो भी रकम, व्याज हर्जाना, मुकदमे की लागत आदि सहित ऋणदाता वैध तरीके से मूलऋणी से प्राप्त कर सकता है, समान रकम वह (ऋणदाता) प्रतिभू से पुनर्प्राप्त कर सकता है। अतः प्रतिभू का दायित्व मूल ऋणी के दायित्व से न तो ज्यादा हो सकता है न कम।
(2) प्रतिभू का दायित्व उसी समय पैदा हो जाता है जब मूल ऋणी द्वारा त्रुटि की जाती है प्रतिभू का दायित्व तुरन्त उत्पन्न हो जाता है जब मूल ऋणी भुगतान करने में त्रुटि करता है। यह जरूरी नहीं है कि त्रुटि की सूचना प्रतिभू को दी जाए। साथ ही प्रतिभू को ऋणदाता को पहले मूल ऋणी के विरुद्ध उसे उपलब्ध सभी उपचारों को खत्म करने
के लिए कहने का कोई अधिकार नहीं है इसके पहले कि वह उसके (प्रतिभू) के विरुद्ध कार्यवाही करे। इसका अर्थ यह है कि ऋणदाता प्रतिभू पर वाद करने से पहले मूल ऋणी के विरुद्ध कार्यवाही करने हेतु बाध्य नहीं
(3) प्रतिभू उसके दायित्व को प्रतिबन्धित या सीमित करने
हेतु स्वतन्त्र है- प्रतिभूति देते समय प्रतिभू के लिए यह खुला है कि वह उसके दायित्व को उसके द्वारा स्पष्टतया घोषित एक स्थायी रकम तक प्रतिबन्धित या सीमित करे। साथ ही उसका दायित्व अनुबन्ध में इस सम्बन्ध में शामिल अन्य शर्तों पर भी निर्भर हो सकता है।
(4) कई बार प्रतिभू दायित्वाधीन होता है हालांकि मूल ऋणी दायित्वाधीन नहीं होता प्रतिभू का दायित्व मूल ऋणी के साथ सहविस्तारी होता है। हालांकि कई ऐसी विशिष्ट परिस्थितियाँ हो सकती हैं। जिनमें कुछ वैधानिक प्रावधानों के कारण मूल ऋणी दायित्वाधीन नहीं माना जा सकता, तब भी प्रतिभू दायित्वाधीन होगा। यह इसलिए कि
प्रतिभू तथा ऋणदाता के बीच में अनुबन्ध एक स्वतंत्र अनुबन्ध है न कि एक समपाश्विक अनुबन्ध । उदाहरण के लिए (अ) जब मूल ऋणी एक अवयस्क होता है, तब प्रतिभू दायित्वाधीन होता है, (ब) यदि किसी कार्य द्वारा मूल ऋणी का दायित्व कम या खत्म हो जाता है, तब भी प्रतिभू दायित्वाधीन बना रहता है यदि ऋणदाता मूल ॠणी को sue करने में असफल रहता है तथा ऋण समय वर्जित हो जाता है, तब भी प्रतिभूत दायित्वाधीन बना रहता है।
(5) यदि प्रतिभू के दायित्व के पूर्व एक शर्त होती है, तब
प्रतिभू सिर्फ तब दायित्वाधीन होगा जब पहले वह शर्त पूरी होती है संविदा अधिनियम की धारा 144 ऐसी स्थितियाँ बताती है कि जहाँ एक व्यक्ति एक अनुबन्ध में ऐसी प्रतिभूति देता है कि ऋणदाता इसके ऊपर तब तक कार्यवाही नहीं करेगा जब तक कि अन्य व्यक्ति इसमें एक
सह-प्रतिभू की तरह शामिल नहीं होता, प्रतिभूति तब तक वैध नहीं होगी यदि वह व्यक्ति शामिल नहीं होता।
(6) एक चालू प्रतिभूति में एक चालू प्रतिभूति में, प्रतिभू का
विस्तारित होता है। दायित्व एक समय की अवधि के दौरान व्यवहारों की श्रृंखला तक विस्तारित होता है।
(7) प्रतिभू दायित्वाधीन नहीं होगा- प्रतिभू दायित्वाधीन नहीं होगा यदि ऋणदाता ने प्रतिभूति या तो व्यवहार के बारे में एक महत्त्वपूर्ण तथ्य का मिथ्या वर्णन करके या महत्त्वपूर्ण परिस्थितियों के बारे में मौ रखकर हासिल की है।
(8) विधि की कार्यवाही से मूल ऋणी की मुक्ति प्रतिभू
दायित्व से मुक्त नहीं करती- यदि मूल ॠणी विधि की कार्यवाही से मुक्त होता है जैसे दिवालियापन, यह प्रतिभू को मुक्त नहीं करता तथा वह ऋण की पूरी रकम के लिए दायित्वाधीन बना रहता है।