सुपुर्दगी का अर्थ  Delivery

 

वस्तु विक्रय अधिनियम, 1930 की धारा 2 (2) के अनुसार ‘एक व्यक्ति से दूसरे को कब्जे का ऐच्छिक हस्तान्तरण ‘सुपुर्दगी’ होता है।’

वस्तु विक्रय अधिनियम की धारा 33 के अनुसार विक्रय किए। माल की सुपुर्दगी कोई ऐसा काम करके की जा सकती है जिसे पक्षकार सुपुर्दगी मानने को तैयार हैं या जिसका प्रभाव माल के कब्जे को क्रेता या सकी तरफ से माल रखने हेतु अधिकृत किसी अन्य व्यक्ति के कब्जे में

रखने का है।

उदाहरण- मुकेश ने महेश से गेहूँ के 100 बोरे खरीदे। मुकेश ने महेश से माल संग्रहित करने हेतु एक ट्रक भेजा। जैसे ही बोरे ट्रक में लादे जाते हैं, महेश, मुकेश को माल की सुपुर्दगी कर देगा।

सुपुर्दगी के प्रकार

सुपुर्दगी तीन तरह की होती है जिनका उल्लेख निम्न तरह किया जा सकता है-

(1) वास्तविक सुपुर्दगी जब माल वास्तविक रूप से अनुबन्ध की शर्तों के अनुसार क्रेता या क्रेता के अधिकृत प्रतिनिधि के पास सुपुर्द कर दिया जाता है, इसे वास्तविक सुपुर्दगी कहा जाता है।

( 2 ) रचनात्मक सुपुर्दगी जब माल वासतविक क्रेता तक नहीं पहुँचता बल्कि विक्रेता या विक्रेता के प्रतिनिधि के पास रहता है हालांकि इसे ऐसे माना जाता है जैसे माल क्रेता तक पहुँच गया है तथा इसे रचनात्मक सुपुर्दगी कहा जाता है।

(3) सांकेतिक सुपुर्दगी जब विक्रेता माल के अधिकार प्रलेख जैसे रेलवे रसीद, जहाजी दस्तावेज तथा अन्य ऐसे दस्तावेज क्रेता को सौंप देता है, तो इसे सांकेतिक सुपुर्दगी कहा जाता है।

सुपुर्दगी से सम्बन्धित नियम

वस्तु विक्रय अधिनियम, 1930 में धारा 34 से 36 में सुपुर्दगी से सम्बन्धित निम्न नियमों का वर्णन किया गया है-

(1) आंशिक सुपुर्दगी का प्रभाव प्रायः माल संपूर्ण मात्रा में

सुपुर्द किया जाता है परन्तु कई बार विक्रेता बाकी माल से इसे अलग करने के लिए माल का सिर्फ एक भाग दे सकता है। यदि यह स्थिति है तब आंशिक माल अंतिम सुपुर्दगी को प्रभावित नहीं करेगा।

(2) जब क्रेता, विक्रेता को माल की सुपुर्दगी करने को

कहता है- यदि विक्रय अनुबन्ध में सुपुर्दगी के समय का कोई उल्लेख नहीं है तब विक्रेता तब सुपुर्द करने हेतु बाध्य है जब भी क्रेता माल की माँग करता है।

3) अन्य प्रावधान वस्तु विक्रय अधिनियम, 1930 का घास

के कुछ अन्य प्रावधान इस तरह हैं-

(i) सुपुर्दगी का तरीका माल की सुपुर्दगी करना विक्रेता

दायित्व है। यह पक्षकारों के बीच स्पष्ट या गर्भित अनुबन्ध पर आधारित होता है।

(ii) सुपुर्दगी का स्थान यदि अनुबन्ध में सुपुदगों के स्थान क

उल्लेख किया गया है, तब सुपुदगी उसी स्थान पर होगी। लोकन इसका उल्लेख नहीं किया गया है तब सुपुर्दगी ऐसे स्थान पर होगी जहाँ अनुबन्ध बनाया गया था या जहाँ माल प्रायः संग्रहित किया जाता है।

(iii) सुपुर्दगी का समय- यदि सुपुर्दगी के समय का को

उल्लेख नहीं है, तब विक्रेता माल को उचित समय में सुपुर्द करेगा, इसमें असफल रहने पर क्रेता सुपुर्दगी को अस्वीकार कर सकता है तथा क्षतिपूर्ति की माँग कर सकता है।

(iv) जब माल तीसरे पक्ष के कब्जे में है- यदि माल तीस

पक्षकार के कब्जे में है, तब सुपुर्दगी उसी समय हो गई मान ली जाती जब तृतीय पक्ष स्वीकार करता है कि उसके पास कुछ माल है जो क्रेता का है।

(v) सुपुर्दगी हेतु माँग करना तथा माल को प्रस्तुत करना

माल की माँग उचित समय पर करना चाहिए। इसी तरह सुपुर्दगी उचित समय, स्थान तथा तरीके से देनी चाहिए। यदि सुपुर्दगी अनुचित है इसे सुपुर्दगी नहीं माना जाएगा तथा हजनि का दावा किया जा सकता है

(vi) सुपुर्दगी व्यय- इसके सम्बन्ध में किसी विशिष्ट ठहराव के अभाव में सुपुर्दगी के सभी व्यय विक्रेता को वहन करने होते हैं।

(4) गलत मात्रा की सुपुर्दगी यदि सुपुर्द किए गए माल क

मात्रा, विक्रय अनुबन्ध में मात्रा से अलग है तब निम्न प्रावधान लागु होंगे-

(i) कम सुपुर्दगी- क्रेता कुल सुपुर्दगी को अस्वीकार कर सकते है या जो मात्रा वास्तव में सुपुर्द की गई है उसे स्वीकार कर सकता है दूसरी स्थिति में क्रेता तय दर पर ही भुगतान करेगा।

(ii) अधिक सुपुर्दगी क्रेता के पास तीन विकल्प होते हैं, प्रथम पूरी सुपुर्दगी को अस्वीकार करना, दूसरा माल को तय अनुसार स्वीकार करना तथा तीसरा अतिरिक्त माल को स्वीकार करना तथा माल की मूलभूत मात्रा के लिए तय दर पर पैसे का भुगतान करना।

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