एक प्रतिभू तब दायित्व से मुक्त माना जाता है जब अनुबन्ध के अन्तर्गत उसका दायित्व खत्म हो जाता है। निम्न तरीके या परिस्थितियाँ हैं जिनमें एक प्रतिभू उसके दायित्व से मुक्त हो जाता है-(i) खण्डन द्वारा,
(ii) ऋणदाता के व्यवहार द्वारा तथा
(iii) प्रतिभूति के अनुबन्ध के अवैधीकरण द्वारा।
1. प्रतिभूति के अनुबन्ध के खण्डन द्वारा
खण्डन का अर्थ रद्दीकरण है। प्रतिभू दायित्व से मुक्त हो जाता है। जब प्रतिभूति का अनुबन्ध निम्न तरीकों में से किसी एक से खण्डित हो जाता है।
( 1 ) प्रतिभू द्वारा सूचना प्रतिभूति का एक अनुबन्ध विशिष्ट या निरन्तर हो सकता है। एक विशिष्ट प्रतिभूति प्रतिभू द्वारा खण्डित नहीं की। जा सकती यदि दायित्व पहले ही उत्पन्न हो चुका है।
(2) प्रतिभू की मृत्यु प्रतिभू की मृत्यु भावी व्यवहारों के लिए चालू प्रतिभूति के खण्डन के रूप में कार्य करती है। मृतक प्रतिभू सम्पत्ति ऋणदाता तथा मूल ऋणी के बीच में किए गए किसी व्यवहार हेतु दायित्वाधीन नहीं होगी भले ही ऋणदाता को मृत्यु की कोई सूचना नहीं हो। यदि पक्षकार प्रतिभू की मृत्यु की सूचना पर सहमत है तब मृत्यु की सूचना जरूरी नहीं होगी। अंग्रेजी विधि के अन्तर्गत भी प्रतिभू की मृत्यु की सूचना जरूरी होती है।
(3) नवीनीकरण – प्रतिभूति के अनुबन्ध नवीनीकरण द्वारा समाप्त किए जा सकते हैं। नवीनीकरण का अर्थ है कि पुराने अनुबन्ध की जगह या तो समान पक्षकारों के बीच में या भिन्न (जैसे कोई अन्य) पक्षकारों के बीच में नया अनुबन्ध किया गया है। अतः मौलिक अनुबन्ध ख़त्म हो जाता है तथा इसलिए प्रतिभू पुराने अनुबन्धों के सम्बन्ध में मुक्त हो जाता है। ऐसी स्थितियों में पुराने अनुबन्ध की समाप्ति नए अनुबन्ध के लिए प्रतिबन्ध होता है। (अनुबन्ध अधिनियम की धारा 62)
II. ऋणदाता के व्यवहार द्वारा
प्रतिभू उसके दायित्व से निम्न परिस्थितियों में से किसी एक में प्रतिभूति के दायित्व के सम्बन्ध में ऋणदाता के कुछ विशिष्ट व्यवहार के कारण मुक्त हो सकता है-
(1) विचलन अर्थात् अनुबन्ध की शर्तों में परिवर्तन-
अनुबन्ध अधिनियम की धारा 133 के अनुसार ‘मूल ऋणी तथा ऋणदाता के बीच में अनुबन्ध की शर्तों में प्रतिभू की सहमति के बिना किया गया कोई भी विचलन, विचलन के बाद के व्यवहारों के सम्बन्ध में प्रतिभू को मुक्त कर देता है। मूलभूत सिद्धान्त यह है कि प्रतिभू किसी ऐसी चीज के लिए जिम्मेदार ठहराया नहीं जा सकता जिसके लिए उसने अनुबन्ध नहीं किया है। प्रतिभू को यह निर्णय लेना होता है कि क्या वह परिवर्तित अनुबन्ध पर भी दायित्वाधीन बना रहेगा या नहीं। हालांकि यह नोट किया जाना चाहिए कि ‘प्रयत्नशील’ विचलन जो क्रियाशील रहता है वह प्रतिभू को मुक्त नहीं करेगा। इसी तरह, जहाँ प्रतिभूति कई अलग-अलग ऋणों या दायित्वों के निष्पादन के लिए है, उनमें से एक की प्रकृति में परिवर्तन प्रतिभू को सिर्फ परिवर्तित ॠण या दायित्व के सम्बन्ध में मुक्त करेगा, न कि अन्य ऋणों या दायित्वों के सम्बन्ध में।
(2) मूल ऋणी की मुक्ति या उन्मुक्ति धारा 134 दो परिस्थितियों बताती है जब प्रतिभू मुक्त हो जाता है-(i) यदि ऋणदाता मूल ऋणी के साथ एक नया अनुबन्ध करता है, जिसके द्वारा मूल ऋणी उसके दायित्व से मुक्त हो जाता है,
(ii) यदि ऋणदाता कोई कार्य या विलोपन करता है।
जिसका विधिक प्रभाव मूल ऋणी को उसके दायित्व से मुक्त करना है। इस संदर्भ में कुछ बिन्दु नोट किए जाने चाहिए। जब मूल ऋणी कानून की क्रिया से मुक्त होता है, तब प्रतिभू उसके दायित्व से मुक्त नहीं होता। उदाहरण के लिए दिवालिया प्रकरण में या मर्यादा अवधि के बीतने
से, कम्पनी के प्रकरण में समापन कार्यवाहियों में मूल ऋणी की मुक्ति, प्रतिभू को उसके दायित्व से मुक्त नहीं करती।लेकिन जहाँ कानून को कार्यवाही से मूल ऋणी का दायित्व सीमित हो जाता है वहाँ प्रतिभू का दायित्व भी उसी अनुपात में कम हो जाता है।
(3) प्रतिभू की सहमति के बिना मूल ऋणी के साथ ऋणदाता द्वारा की गई विशिष्ट व्यवस्थाएं अनुबन्ध अधिनियम की धारा 135 के अनुसार, जहाँ ऋणदाता प्रतिभू की सहमति के बिना मूल ऋणी के साथ एक अनुबन्ध में प्रवेश करता है जिसके द्वारा ऋणदाता मूल
ऋणी के साथ
(i) एक समझौता करता है (पारस्परिक रियायत के साथ ऋण का निपटारा),
(ii) को समय देने का वचन देता है, या
(iii) को वाद न करने का वचन देता है, तब प्रतिभू इन व्यवस्थाओं के कारण उसके दायित्व से मुक्त हो
जाता है।
(4) प्रतिभू के अंततः उपचार को कमजोर करने वाला
ऋणदाता का कार्य अनुबन्ध अधिनियम की धारा 139 बताती है कि यदि ऋणदाता कोई ऐसा कार्य करता है कि जो प्रतिभू के अधिकारों के प्रतिकूल है या कोई कार्य का विलोपन करता है जो करना प्रतिभू के प्रति इसके कर्तव्य के रूप में उसके लिए जरूरी है तथा ऐसे कार्य तथा
विलोपन के कारण मूल ऋणी के विरुद्ध प्रतिभू को उपलब्ध अंततः उपचार कमजोर होता है (कमजोर या उसे क्षति होती है), तब प्रतिभू मुक्त हो जाता है। यह नोट किया जा सकता है धारा 139 सिर्फ तब लागू होती है जब मूल ऋणी के विरुद्ध प्रतिभू का अंततः उपचार कमजोर या नष्ट
होता है तथा यदि ऐसा उपचार कमजोर नहीं होता है तब प्रतिभू मुक्त नहीं होता है।
(5) प्रतिभूति की हानि अनुबन्ध अधिनियम की धारा 141
प्रावधान करती है कि यदि ऋणदाता अनुबन्ध करने के समय पर मूल ऋणी द्वारा उसे दी गई प्रतिभूति खो देता है या प्रतिभू की सहमति के बिना उसे अपने से दूर कर देता है, तब प्रतिभू प्रतिभूति के मूल्य का सीमा तक मुक्त हो जाता यहाँ प्रतिभूति में व सब अधिकार शामिल हैं।
जो ऋणदाता के पास अनुबन्ध के दिन पर सम्पत्ति के विरुद्ध होते हैं।
III. प्रतिभूति के अनुबन्ध के अवैधीकरण के द्वारा
प्रतिभूति के एक अनुबन्ध से बचा जा सकता है यदि यह व्यथ या प्रतिभू की इच्छा पर व्यर्थनीय हो जाता है। निम्न स्थितियों में एक प्रतिभू उसके दायित्व से मुक्त हो सकता है-
( 1 ) मिथ्या वर्णन द्वारा प्राप्ति प्रतिभूति अनुबन्ध अधिनियम की धारा 142 प्रावधान करती है कि जब ऋणदाता द्वारा प्रतिभूति के रावधान में एक महत्त्वपूर्ण तथ्य के सम्बन्ध में एक मिथ्या व्यपदेशन
किया गया है, तब अनुबन्ध अवैध होता है।
(2) छिपाव द्वारा प्राप्त प्रतिभूति अधिनियम की धारा 143
कहती है कि जब एक प्रतिभूति ऋणदाता द्वारा अनुबन्ध के सम्बन्ध में परिस्थितियों के किसी महत्त्वपूर्ण भाग के सम्बन्ध में मौन रखने के माध्यम से प्राप्त की जाती है।